भेदभाव

डॉयचे वेले की विजुअल जर्नलिज्म टीम

तारीख: 03.09.2019

पूरे यूरोप में प्रवासियों की स्थिति और भेदभाव

एहम ईसा सीरिया से जर्मनी आए शरणार्थी हैं. ऐसा शायद ही कोई दिन गुजरता हो, जब उन्हें भेदभाव का सामना ना करना पड़ता हो. और वे अकेले ऐसे शरणार्थी नहीं हैं जिन्हें इससे गुजरना पड़ता है. पूरे यूरोप में ही आप्रवासी और शरणार्थी इसका सामना कर रहे हैं. ये हैं उन्हीं लोगों की कहानियां..

यूरोप के अधिकतर लोग चाहते हैं कि आप्रवासन की दर में कमी आए. यूरोप के अधिकतर लोग शरणार्थियों का स्वागत कर रहे हैं. यूरोप के अधिकतर लोग चाहते हैं कि मुस्लिम देशों से आने वाले शरणार्थियों पर रोक लगे. यूरोप के अधिकतर लोग शरणार्थियों को अपनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने के लिए तैयार हैं.

यूरोप के बारे में इन विरोधाभासी सुर्खियों में से आप जिस किसी पर भी यकीन करें, एक बात तय है कि ये सभी सुर्खियां यूरोप में रहने वाले एक समूह को नजरअंदाज करती हैं. और वह है यूरोप की 12 प्रतिशत आबादी जो आप्रवासी मूल की है.

आप्रवासियों और उनके पूर्वजों पर अगर नजर डालें तो उनके जीवन का ऐसा पहलू देखने को मिलता है जिस पर बहुत कम रिपोर्टिंग होती है और जिसे बदलने की जरूरत है.

तुम यहां के नहीं हो

यह कहानी शुरू होती है एहम ईसा के साथ, जो सीरिया में वकालत किया करते थे और अब जर्मनी में रह रहे हैं.

एहम ईसा का अनुभव

ऐसा है पैटर्न

मेट्रो, डिस्को और नौकरी की तलाश में भेदभाव का सामना करने वाला ईसा अकेला नहीं है.

ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में रिसर्चरों की एक पूरी टीम नस्लवाद और भेदभाव की घटनाओं को समझने पर काम कर रही है. ये रिसर्चर लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बनी यूरोपीय संघ की "एजेंसी फॉर फंडामेंटल राइट्स" के लिए काम करते हैं.

अपने हालिया शोध के लिए इन लोगों ने 28 देशों में हजारों लोगों से बात की. उन्होंने ऐसे 15,000 लोग ढूंढे जो कम से कम एक साल के लिए ईयू में रह चुके हैं लेकिन जिनका जन्म (या फिर उनके माता पिता का जन्म) यूरोप के बाहर कहीं हुआ था. साथ ही उन्होंने ये इंटरव्यू उस देश की औपचारिक भाषा में नहीं, बल्कि अन्य भाषाओं में किए ताकि वे सुनिश्चित कर सकें कि ऐसे लोगों की आवाजें भी इसमें शामिल हों जो इस तरह के दूसरे शोधों में हिस्सा ना ले पाते हों.

नतीजों के अनुसार 24 फीसदी लोगों ने माना कि पिछले 12 महीनों में उन्हें अपने धर्म, जाति या फिर आप्रवासी होने के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा है. मतलब यह हुआ कि यूरोप में एहम की तरह लाखों लोग हर दिन भेदभाव का सामना कर रहे हैं. और इस अलग बर्ताव की वजह सिर्फ इतनी है कि वे कहीं और से नाता रखते हैं या फिर उनकी मान्यताएं कुछ अलग हैं.

मुझे लगता है कि यहां जर्मनी में हमारे साथ जर्मन या यूरोपीय लोगों जैसा बर्ताव नहीं होता.

रिपोर्ट दिखाती है कि कुछ समुदायों के लिए हालात बदतर होते चले जा रहे हैं. रिसर्च के नतीजे दुखद हैं - नफरत और भेदभाव के खिलाफ जंग विफल हो रही है. समस्या से निपटने के लिए जो कानून और नीतियां बनाई गई हैं, वे लोगों की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं हैं.

इस सर्वे में यूरोपीय संघ में रहने वाले चार आप्रवासी समूहों के 10 से 31 फीसदी लोगों ने कहा कि सर्वे के पहले के 12 महीनों में उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा था.

यूरोपीय देशों में किन लोगों के साथ सबसे ज्यादा और किन के साथ सबसे कम भेदभाव होता है?

नफरत के बीज

यूरोप में क्यों बढ़ रहा है नस्ली भेदभाव?

2015 और 2016 के बीच जंग और उत्पीड़न से भाग कर यूरोप में करीब 30 लाख लोग आए. इस बड़ी संख्या को देखते हुए मीडिया रिपोर्टों में इसे "शरणार्थी संकट" का नाम दिया गया. साथ ही यह भी कयास लगाए गए कि इसका नतीजा शरणार्थियों के प्रति द्वेष के रूप में ही देखने को मिलेगा.

लेकिन क्या विदेशियों के प्रति घृणा की भावना के लिए उनकी मौजूदगी को ही जिम्मेदार ठहराना सही है? यह धारणा कितनी गलत है यह तो तब समझ में आता है जब उन प्रमाणों पर रोशनी डाली जाती है, जो दिखाते हैं कि सीरिया और अफगानिस्तान से शरणार्थियों के आने से बहुत पहले ही नफरत के बीज बोए जा चुके थे.

अगर राजनेता हमेशा यह कहते रहेंगे कि अल्पसंख्यक खतरा हैं, तो समाज को यही संकेत जाएगा.

लंदन की इंस्टीट्यूट फॉर रेस रिलेशंस की निदेशक लिज फेकेटे पिछले तीन दशकों से इस प्रक्रिया को दर्ज कर रही हैं.

मुख्यधारा के नेताओं के बयानों को दर्ज कर वे समझाती हैं कि कैसे शरणार्थियों को लेकर आधिकारिक रुख उग्र दक्षिणपंथ की ओर जाने लगा है और इससे यूरोपीय संघ में रहने वाले अल्पसंख्यकों पर क्या असर पड़ता है.

लिज फेकेटे बताते हैं कि कैसे मध्यमार्गियों ने दक्षिणपंथ को बढ़ावा दिया है

नीदरलैंड्स का मामला

ईयू के विभिन्न देशों में शरणार्थियों के हालात अलग अलग हैं. लेकिन अगर यूरोप में किसी एक देश को चुनना हो, जहां नस्लवाद लगातार बढ़ रहा है, तो वह होगा नीदरलैंड्स.

फंडामेंटल राइट्स एजेंसी के आंकड़े दिखाते हैं कि भेदभाव का सामना करने वाले उत्तरी अफ्रीकी मूल के लोगों की संख्या यहां बढ़ती जा रही है. इन लोगों को यूरोप के कई देशों में हुए सर्वे में शामिल किया गया.

आंकड़े दिखाते हैं कि यूरोप में नस्लवाद बढ़ रहा है

2008 से 2016 के बीच यूरोप के कुछ देशों मसलन इटली, बेल्जियम और स्पेन में उत्तर अफ्रीकी मूल के लोगों के खिलाफ भेदभाव के मामलों में कमी दर्ज की गई.

..लेकिन अन्य देशों जैसे नीदरलैंड्स और फ्रांस में उत्तरी अफ्रीकी मूल के लोगों ने 2016 में 2008 की तुलना में भेदभाव का ज्यादा सामना किया.

प्रवासी मुद्दे पर ऐसे फैली है दक्षिणपंथी विचारधारा

इस दौरान नीदरलैंड्स में आप्रवासियों की संख्या में कोई इजाफा नहीं हुआ, बल्कि आप्रवासन दर जो कि 2008 में 2.6% थी, वह 2016 में गिर कर सिर्फ 1.9% रह गई. लेकिन भेदभाव में जो वृद्धि हुई है, उसे समझना है तो इस दौरान देश की राजनीति में हुए बदलावों को समझना होगा. और ऐसी ही कहानी यूरोप के कई देशों में दोहराई भी गई.

एक तरफ तो पिम फॉरटून और खेयर्ट विल्डर्स जैसे तेजतर्रार नेता हैं, जिन्हें मीडिया ने भी खूब कवरेज दी और जिन्हें उग्र दक्षिणपंथियों का पूरा समर्थन हासिल हुआ. इन्होंने शरणार्थियों को डच समाज के लिए सांस्कृतिक खतरे के रूप में पेश किया, खास कर मुसलामानों को चिंता का विषय बताया और ऐसा करके उन्होंने सुर्खियां भी बटोरी और लोगों का ध्यान भी खींचा.

साथ ही इस तरह की सोच के चलते शरणार्थियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी होने लगे और इनमें अकसर इस्लाम के प्रति घृणा देखने को मिली. सच्चाई भले ही यह है कि इस तरह की सोच सिर्फ उन चंद लोगों की थी जो शरणार्थियों का स्वागत करने वालों का विरोध करना चाहते थे लेकिन मेनस्ट्रीम के नेताओं ने इन लोगों को संजीदगी से लेना शुरू कर दिया और इनकी बातों को वे अपनी नीतियों और भाषणों का हिस्सा बनाने लग गए.

नीदरलैंड्स के प्रधानमंत्री मार्क रुट्टे ने तो जनवरी 2017 में अपने चुनाव प्रचार के दौरान अखबार में उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा वाले पूरे पूरे पेज के विज्ञापन छपवाए. यह विज्ञापन उन्होंने नागरिकों को एक पत्र के रूप में लिखा था. उन्होंने इसमें कहा था कि अल्पसंख्यक जरा जरा सी बात पर भेदभाव की शिकायत करने लगते हैं. चेतावनी भरे स्वर में उन्होंने लिखा, "अगर आप हमारे देश को नकारते हैं, तो आप यहां से जा सकते हैं. सामान्य रूप से रहिए या फिर चले जाइए."

तस्वीरों में देखें, नीदरलैंड्स में कैसे बढ़ा नस्लवाद

क्या लोकलुभावनवाद मुख्यधारा का हिस्सा बन गया है?

2017 में नीदरलैंड्स में हुए आम चुनावों में विल्डर्स की पार्टी को महज 13 फीसदी वोट ही मिले थे. फिलहाल पार्टी विपक्ष में है और विवादों में घिरी रहती है. लेकिन यह पार्टी समाज की विचारधारा बदलने में कितनी कामयाब रही है?

अब्दु मेनेबही नीदरलैंड्स में मुसलमानों की मदद के लिए एक हॉटलाइन चलाते हैं. नस्लवाद को ले कर वे एक साफ ट्रेंड देखते हैं.

अब्दू मेनेबही अपना अनुभव बताते हैं

नफरत का ब्लूप्रिंट

सिर्फ राष्ट्रवादी पार्टियों के भड़काऊ भाषणों ने ही भेदभाव को बढ़ावा नहीं दिया है, बल्कि यूरोप में सरकारों द्वारा नीतियों में किए गए बदलावों के चलते भी असमान बर्ताव में इजाफा हुआ है.

माइग्रेंट इंटीग्रेशन पॉलिसी इंडेक्स (मीपेक्स) में काम करने वाले रिसर्चरों ने एक विस्तृत सूची तैयार की है जिसमें ईयू के देशों में आप्रवासन नीतियों में किए गए छोटे से छोटे बदलाव दर्ज हैं. इस पहल को यूरोपीय संघ द्वारा फंड किया गया है और इसमें यूनिवर्सिटियों और थिंक टैंक के जानकारों ने ऐसा डाटा जमा किया है जो दिखाता है कि सरकारें आप्रवासियों और शरणार्थियों के समाज में समेकन के लिए किस तरह के कदम उठा रही हैं.

डॉयचे वेले ने इस डाटा का विश्लेषण किया और पाया कि 2008 से 2014 के बीच आप्रवासन नीतियों में नकारात्मक बदलाव हुए हैं. इस दौरान ईयू के 28 सदस्य देशों में से 21 ने विदेशियों के लिए नए प्रतिबंध जारी किए. इससे पता चलता है कि कैसे 2015-2016 में शुरू हुए शरणार्थी संकट से पहले ही आप्रवासी विरोधी एजेंडा फैलने लगा था.

नीदरलैंड्स की संसद में भी मुसलमानों के खिलाफ बातें बर्दाश्त की जाती हैं. वहां यह बहुत आम है.

और सबसे ज्यादा बदलाव करने वाला देश था नीदरलैंड्स, जिसने 17 अहम क्षेत्रों में बदलाव किए. इसमें शरणार्थियों के लिए यूनिवर्सिटी में शिक्षा पर रोक से ले कर परिवारों के पुनर्मिलन (फेमिली रीयूनीफिकेशन) के नियमों में सख्ती शामिल है. इसके अलावा शरणार्थियों के लिए नौकरी के अवसरों को भी सीमित किया गया और शरणार्थियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों के लिए सरकारी मदद भी कम की गई. जहां नीदरलैंड्स कभी यूरोप का सबसे ज्यादा खुले विचारों वाला देश हुआ करता था, अब वह शरणार्थियों का सबसे कम स्वागत करने वाला देश बन गया है.

मीपेक्स का डाटा दिखाता है कि जिस तरह से नीतियों में बदलाव किया गया है, उसके बाद अल्पसंख्यकों में भेदभाव की भावना सिर्फ आपसी द्वेष का नतीजा नहीं है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा है.

कथनी से करनी तक

रोजमर्रा में होने वाला भेदभाव पीड़ितों पर बड़ा असर छोड़ सकता है. हालांकि यह बहुत आम नहीं है लेकिन पूर्वाग्रहों के चलते सिर्फ विचारों के मतभेद नहीं होते, बल्कि यह शारीरिक हिंसा का रूप भी ले सकते हैं.

असा ट्राओरे ने इसे बहुत करीब से महसूस किया है. 2016 में उनके भाई अदामा ट्राओरे की पेरिस में पुलिस हिरासत के दौरान मौत हो गई थी. आधिकारिक बयान कहता है कि उनकी एक बीमारी के चलते मौत हुई. लेकिन असा को लगता है कि उनके भाई की मौत पुलिस द्वारा अश्वेत लोगों की जान लेने के पैटर्न में फिट बैठती है. इसे साबित करने के लिए वे एक कैंपेन भी चला रही हैं.

आसा ट्राओरे अपना अनुभव बताती हैं

आसा ट्राओरे अपना अनुभव बताती हैं

असा ट्राओरे के बयानों को आधिकारिक रिपोर्टों में समर्थन भी मिला है. 2017 में एक लोकपाल ने माना कि अश्वेत पुरुषों के प्रति पुलिस का रवैया हिंसक है. ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि पुलिस की जांच प्रक्रिया "आबादी के एक हिस्से के प्रति भेदभावपूर्ण और अपमानजनक तरीके से की जाती है."

अदामा ट्राओरे की मौत पर औपचारिक रूप से जांच जारी है. अब यह देखना बाकी है कि क्या सरकार आरोपियों को निर्दोष घोषित कर देगी, जैसा कि पहले फ्रांस में पुलिस हिरासत के दौरान मौत के कई मामलों में हो चुका है.

भेदभाव, अपमान और हिंसा के चलते ईयू में कुछ लोग बदलाव की मांग कर रहे हैं.

अब्दु मेनेबही उन लोगों में से एक हैं जो अपने रोजमर्रा के अनुभवों को राजनीति के मैदान में ले आए हैं. उन्होंने डच नेता विल्डर्स के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिए धन जुटाया. उनका आरोप था कि विल्डर्स की टिप्पणियों के कारण मोरक्को के लोगों की भावनाएं आहत हुईं.

अदालत ने उनकी दलील स्वीकारी और विल्डर्स को दोषी पाया. विल्डर्स अब फैसले के खिलाफ अपील कर रहे हैं लेकिन विदेशी मूल के लोगों के खिलाफ भावनाएं भड़काने की उनकी काबिलियत अब खत्म होती दिखती है. पिछले महीने हुए यूरोपीय संसद के चुनावों में उनकी पार्टी सारी सीटें हार गई.

नफरत की जितनी बड़ी लहर इस वक्त समाज में फैली है, उसके सामने यह बहुत छोटा सा ही बदलाव लगता है लेकिन मेनेबही की मुहीम दिखती है कि जब आप्रवासियों की आवाजें सुनी जाती हैं, तो क्या कुछ मुमकिन हो जाता है.

क्रेडिट्स

लेखक: टॉम विल्स

अनुवाद: ईशा भाटिया सानन

वीडियो जर्नलिस्ट: गोएना केटल्स, टॉम विल्स

तस्वीरों की रिसर्च: गोरान कुटानोस्की, रोन्का ओबरहामर

आर्काइव रिसर्च: श्टेफान रिटर, हाइके उलरिष

वीडियो प्रोड्यूसर: क्लाउडिया बेजिच, जैकी डूखेमिन, श्टेफान आइषबर्ग, मार्सेल एपल, प्राफाफोर्न खांखाएंग, विली श्मिट, पास्कल सेंटेनास, पेटर थोर्न, शारलोटे वेटिष, क्रिस राइ

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